श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 489

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-17


किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।[1]

भावार्थ
आपके रूप को उसके चकाचौंध के कारण देख पाना कठिन है, क्योंकि वह प्रज्जवलित अग्नि कि भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों ओर फैल रहा है। तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है।

अध्याय-11 : श्लोक-18

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परम निधानम्।।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।[2]

भावार्थ

आप परम आद्य ज्ञेय वास्तु हैं। आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं। आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं। आप सनातन धर्म के पालक भगवान् हैं। यही मेरा मत है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. किरीटिनम् – मुकुट युक्त; गदिनम् – गदा धारण किये; चक्रिणम् – चक्र समेत; च – तथा; तेजःराशिम् – तेज; सर्वतः – चारों ओर; दीप्ति-मन्तम् – प्रकाश युक्त; पश्यामि – देखता हूँ; त्वाम् – आपको; दुर्निरीक्ष्यम् – देखने में कठिन; समन्तात् – सर्वत्र; दीप्त-अनल – प्रज्जवलित अग्नि; अर्क – सूर्य की; द्युतिम् – धूप; अप्रमेयम् – अनन्त।
  2. त्वम् – आप; अक्षरम् – अच्युत; परमम् – परम; वेदितव्यम् – जानने योग्य; त्वम् – आप; अस्य – इस; विश्वस्य – विश्व के; परम् – परम; निधानम् – आधार; त्वम् – आप; अव्ययः – अविनाशी; शाश्वत-धर्म-गोप्ता – शाश्वत धर्म के पालक; सनातनः – शाश्वत; त्वम् – आप; पुरुषः – परमपुरुष; मतः मे – मेरा मत है।

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