श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 417

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-29


समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।[1]

भावार्थ

मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ। मैं सबों के लिए समभाव हूँ। किन्तु जो भी भक्ति पूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमें स्थित रहता है और मैं भी उसका मित्र हूँ।

तात्पर्य

यहाँ पर प्रश्न किया जा सकता है कि जब कृष्ण का सबों के लिए समभाव है और उनका कोई विशिष्ट मित्र नहीं है तो फिर वे उन भक्तों में विशेष रुचि क्यों लेते हैं, जो उनकी दिव्य सेवा में सदैव लगे रहते हैं? किन्तु यह भेदभाव नहीं है, यह तो सहज है। इस जगत में हो सकता है कि कोई व्यक्ति अत्यन्त उपकारी हो, किन्तु तो भी वह अपनी सन्तानों में विशेष रुचि लेता है। भगवान का कहना है कि प्रत्येक जीव, चाहे वह जिस योनी का हो, उनका पुत्र है, अतः वे हर एक को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करते हैं। वे उस बादल के सदृश हैं जो सबों के ऊपर जलवृष्टि करता है, चाहे यह वृष्टि चट्टान पर हो या स्थल पर, या जल में हो। किन्तु भगवान अपने भक्तों का विशेष ध्यान रखते हैं। ऐसे हो भक्तों का यहाँ उल्लेख हुआ है– वे सदैव कृष्णभावनामृत में रहते हैं, फलतः वे निरन्तर कृष्ण में लीन रहते हैं। कृष्णभावनामृत शब्द ही बताता है कि जो लोग ऐसे भावनामृत में रहते हैं वे सजीव अध्यात्मवादी हैं और उन्हीं में स्थित हैं। भगवान यहाँ स्पष्ट रूप से कहते हैं– मयि ते अर्थात वे मुझमें हैं। फलतः भगवान भी उनमें हैं। इससे ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् की भी व्याख्या हो जाती है– जो मेरी शरण में आ जाता है, उसकी मैं उसी रूप में रखवाली करता हूँ। यह दिव्य आदान-प्रदान भाव विद्यमान रहता है, क्योंकि भक्त तथा भगवान दोनों सचेतन हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. समः–समभाव; अहम्–मैं; सर्व-भूतेषु–समस्त जीवों में; न–कोई नहीं; मे–मुझको; द्वेष्यः–द्वेषपूर्ण; अस्ति–है; न–न तो; प्रियः–प्रिय; ये–जो; भजन्ति–दिव्यसेवा करते हैं; तु–लेकिन; माम्–मुझको; भक्त्या–भक्ति से; मयि–मुझमें हैं; ते–वे व्यक्ति; तेषु–उनमें; च–भी; अपि–निश्चय ही; अहम्–मैं।

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