श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 599

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-31


यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्मा संपद्यते तदा ॥31॥[1]

भावार्थ

जब विवेकवान व्यक्ति विभिन्न भौतिक शरीरों के कारण विभिन्न स्वरूपों को देखना बन्द कर देता है, और यह देखता है कि किस प्रकार से जीव सर्वत्र फैले हुए हैं, तो वह ब्रह्म-बोध को प्राप्त होता है।

तात्पर्य

जब मनुष्य यह देखता है कि विभिन्न जीवों के शरीर उस जीव की विभिन्न इच्छाओं के कारण उत्पन्न हुए हैं और वे आत्मा से किसी तरह सम्बद्ध नहीं हैं, तो वह वास्तव में देखता है। देहात्मबुद्धि के कारण हम किसी को देवता, किसी को मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली आदि के रूप में देखते हैं। यह भौतिक दृष्टि है, वास्तविक दृष्टि नहीं है। यह भौतिक भेदभाव देहात्मबुद्धि के कारण है। भौतिक शरीर के विनाश के बाद आत्मा एक रहता है। यही आत्मा भौतिक प्रकृति के सम्पर्क से विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करता है। जब कोई इसे देख पाता है, तो उसे आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त होती है। इस प्रकार जो मनुष्य, पशु, ऊँच, नीच आदि के भेदभाव से मुक्त हो जाता है उसकी चेतना शुद्ध हो जाती है और वह अपने आध्यात्मिक स्वरूप में कृष्णभावनामृत विकसित करने में समर्थ होता है। तब वह वस्तुओं को जिस रूप में देखता है, उसे अगले श्लोक में बताया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदा= जब; भूत= जीव के; पृथक्-भावम्= पृथक् स्वरूपों को; एक-स्थम्= एक स्थान पर; अनुपश्यति= किसी अधिकारी के माध्यम से देखने का प्रयास करता है; ततःएव= तत्पश्चात्; च= भी; विस्तारम्= विस्तार को; ब्रह्म= परब्रह्म; सम्पद्यते= प्राप्त करता है; तदा= उस समय।

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