श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-28
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं।
इस अध्याय में उन लोगों का उल्लेख है जो दिव्य पद को प्राप्त करने के अधिकारी हैं। जो पापी, नास्तिक, मूर्ख तथा कपटी हैं उनके लिए इच्छा तथा घृणा के द्वन्द्व को पार कर पाना कठिन है। केवल ऐसे पुरुष भक्ति स्वीकार करके क्रमशः भगवान के शुद्ध ज्ञान को प्राप्त करते हैं, जिन्होंने धर्म के विधि-विधानों का अभ्यास करने, पुण्य कर्म करने तथा पापकर्मों के जीतने में अपना जीवन लगाया है। फिर वे क्रमशः भगवान का ध्यान समाधि में करते हैं। आध्यात्मिक पद पर आसीन होने की यही विधि है। शुद्धभक्तों की संगति में कृष्णभावनामृत के अन्तर्गत ही ऐसी पद प्राप्ति सम्भव है, क्योंकि महान भक्तों की संगति से ही मनुष्य मोह से उबर सकता है। श्रीमद्भागवत में[2]कहा गया है कि यदि कोई सचमुच मुक्ति चाहता है तो उसे भक्तों की सेवा करनी चाहिए (महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तेः), किन्तु जो भौतिकतावादी पुरुषों की संगति करता है वह संसार के गहन अंधकार की ओर अग्रसर होता रहता है (तमोद्वारं योषितां सङिसङम्)। भगवान के सारे भक्त विश्व भर का भ्रमण इसीलिए करते हैं, जिससे वे बद्धजीवों को उनके मोह से उबार सकें। मायावादी यह नहीं जान पाते कि परमेश्वर के अधीन अपनी स्वाभाविक स्थिति को भूलना ही ईश्वरीय नियम की सबसे बड़ी अवहेलना है। जब तक वह अपनी स्वाभाविक स्थिति को पुनः प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक परमेश्वर को समझ पाना या संकल्प के साथ उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में पूर्णतया प्रवृत्त हो पाना कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ येषाम् – जिन; तु – लेकिन; अन्त-गतम् – पूर्णतया विनष्ट; पापम् – पाप; जनानाम् – मनुष्यों का; पुण्य – पवित्र; कर्मणाम् – जिनके पूर्व कर्म; ते – वे; द्वन्द्व – द्वैत के; मोह – मोह से; निर्मुक्ताह – मुक्त; भजन्ते – भक्ति में तत्पर होते हैं; माम् – मुझको; दृढ-व्रताः – संकल्पपूर्वक।
- ↑ श्रीमद्भागवत 5.5.2
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