श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 504

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-38

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परम निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परम च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ।।[1]

भावार्थ

आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं। आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है। आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं। हे अनन्त रूप! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है।

तात्पर्य

प्रत्येक वस्तु भगवान् पर आश्रित है, अतः वे ही परम आश्रय हैं। निधानम् का अर्थ है– ब्रह्म तेज समेत सारी वस्तुएँ भगवान् कृष्ण पर आश्रित हैं। वे इस संसार में घटित होने वाली प्रत्येक घटना को जानने वाले हैं और यदि ज्ञान का कोई अंत है, तो वे ही समस्त ज्ञान के अन्त हैं। अतः वे ज्ञाता हैं और ज्ञेय (वेद्यं) भी वे जानने योग्य हैं, क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं। वैकुण्ठलोक में कारण स्वरूप होने से वे दिव्य हैं। वे दिव्यलोक में भी प्रधान पुरुष हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्वम् – आप; आदि-देवः – आदि परमेश्वर; पुरुषः – पुरुष; पुराणः –प्राचीन, सनातन; त्वम् – आप; अस्य – इस; विश्वस्य – विश्व का; परम् – दिव्य; निधानम् – आश्रय; वैत्ता – जानने वाला; असि – हओ; वेद्यम् – जानने योग्य, ज्ञेय; च– तथा; परम् – दिव्य; च – और; धाम – वास, आश्रय; त्वया – आपके द्वारा; ततम् –व्याप्त; विश्वम् – विश्व; अनन्त-रूप – हे अनन्त रूप वाले।

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