श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 198

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-14

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥[1]

भावार्थ

मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ। जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कभी भी कर्मों के पाश में नहीं बँधता।

तात्पर्य

जिस प्रकार इस भौतिक जगत में संविधान के नियम हैं, जो यह जानते हैं कि राजा न तो दण्डनीय है, न ही किसी राजनियमों के अधीन रहता है, उसी तरह यद्यपि भगवान इस भौतिक जगत के स्रष्टा हैं, किन्तु वे भौतिक जगत के कार्यों से प्रभावित नहीं होते। सृष्टि करने पर भी वे इससे पृथक रहते हैं, जबकि जीवात्माएँ भौतिक कार्यकलापों के सकाम कर्मफलों में बँधी रहती हैं, क्योंकि उनमें प्राकृतिक साधनों पर प्रभुत्व दिखाने की प्रवृत्ति रहती है। किसी संस्थान का स्वामी कर्मचारियों के अच्छे-बुरे कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं, कर्मचारी इसके लिए स्वयं उत्तरदायी होते हैं। जीवात्माएँ अपने-अपने इन्द्रियतृप्ति-कार्यों में लगी रहती है, किन्तु ये कार्य भगवान द्वारा निर्दिष्ट नहीं होते। इन्द्रियतृप्ति की उत्तरोतर उन्नति के लिए जीवात्माएँ इस संसार के कर्म में प्रवृत्त हैं और मृत्यु के बाद स्वर्ग-सुख की कामना करती रहती हैं। स्वयं में पूर्ण होने के कारण भगवान को तथा कथित स्वर्ग-सुख का कोई आकर्षण नहीं रहता। स्वर्ग के देवता उनके द्वारा नियुक्त सेवक हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न – कभी नहीं; माम् – मुझको; कर्माणि – सभी प्रकार के कर्म; लिम्पन्ति – प्रभावित करते हैं; न – नहीं; मे – मेरी; कर्म-फले – सकाम कर्म में; स्पृहा – महत्त्वाकांक्षा ; इति – इस प्रकार; माम् – मुझको; यः – जो; अभिजानन्ति – जानता है; कर्मभिः – ऐसे कर्म के फल से; न – कभी नहीं; बध्यते – बँध पाता है।

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