श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 408

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-21


ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं
विशालंक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते।।[1]

तात्पर्य

इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं। इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ़ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है।

तात्पर्य

जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घ जीवन तथा विषयसुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता। पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है। जैसा कि वेदान्तसूत्र में इंगित किया गया है, (जन्माद्यस्य यतः) जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण कृष्ण को नहीं समझता, वह जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वीलोक को जाता-आता रहता है, मानो वह किसी चक्र पर स्थित हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है। सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म-मृत्यु चक्र में घूमता रहता है। अच्छा तो यह होगा कि सच्चिदानन्द मय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति की जाये, क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लौटना नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ते–वे; तम्–उसको; भुक्त्वा–भोग करके; स्वर्ग-लोकम्–स्वर्ग को; विशालम्–विस्तृत; क्षीणे–समाप्त हो जाने पर; पुण्ये–पुण्यकर्मों के फल; मर्त्य-लोकम्–मृत्युलोक में; विशन्ति–नीचे गिरते हैं; एवम्–इस प्रकार; त्रयी–तीनों वेदों में; धर्मम्–सिद्धान्तों के; अनुप्रपन्नाः–पालन करने वाले; गत-आगतम्–मृत्यु तथा जन्म को; काम-कामाः–इन्द्रियसुख चाहने वाले; लभन्ते–प्राप्त करते हैं।

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