श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 337

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-21

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥[1]

भावार्थ

मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित हूँ। जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।

तात्पर्य

ईश्वर ने हर एक को स्वतन्त्रता प्रदान की है, अतः यदि कोई पुरुष भौतिक भोग करने का इच्छुक है और इसके लिए देवताओं से सुविधाएँ चाहता है तो प्रत्येक हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित भगवान उसके मनोभावों को जानकर ऐसी सुविधाएँ प्रदान करते हैं। समस्त जीवों के परम पिता के रूप में वे उनकी स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करते, अपितु उन्हें सुविधाएँ प्रदान करते हैं, जिससे वे अपनी भौतिक इच्छाएँ पूरी कर सकें। कुछ लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर जीवों को ऐसी सुविधाएँ प्रदान करके उन्हें माया के पाश में गिरने ही क्यों देते हैं? इसका उत्तर यह है कि यदि परमेश्वर उन्हें ऐसी सुविधाएँ प्रदान न करें तो फिर स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। अतः वे सबों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं– चाहे कोई कुछ करे– किन्तु उनका अन्तिम उपदेश हमें भगवद्गीता में प्राप्त होता है– मनुष्य को चाहिए कि अन्य सारे कार्यों को त्यागकर उनकी शरण में आए। इससे मनुष्य सुखी रहेगा।

जीवात्मा तथा देवता दोनों ही परमेश्वर की इच्छा के अधीन हैं, अतः जीवात्मा न तो स्वेच्छा से किसी देवता की पूजा कर सकता है, न ही देवता परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध कोई वर दे सकते हैं जैसी कि कहावत है– ‘ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ती भी नहीं हिलती।’ सामान्यतः जो लोग इस संसार में पीड़ित हैं, वे देवताओं के पास जाते हैं, क्योंकि वेदों में ऐसा करने का उपदेश है कि अमुक-अमुक इच्छाओं वाले को अमुक-अमुक देवताओं की शरण में जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, एक रोगी को सूर्यदेव की पूजा करने का आदेश है। इसी प्रकार विद्या का इच्छुक सरस्वती की पूजा कर सकता है और सुन्दर पत्नी चाहने वाला व्यक्ति शिव जी की पत्नी देवी उमा की पूजा कर सकता है। इस प्रकार शास्त्रों में विभिन्न देवताओं के पूजन की विधियाँ बताई गई हैं। चूँकि प्रत्येक जीव विशेष सुविधा चाहता है, अतः भगवान उसे विशेष देवता से उस वर को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा की प्रेरणा देते हैं और उसे वर प्राप्त हो जाता है। किसी विशेष देवता के पूजन की विधि भी भगवान द्वारा ही नियोजित की जाती है। जीवों में वह प्रेरणा देवता नहीं दे सकते, किन्तु भगवान परमात्मा हैं जो समस्त जीवों के हृदयों में उपस्थित रहते हैं, अतः कृष्ण मनुष्य को किसी देवता के पूजन की प्रेरणा प्रदान करते हैं। सारे देवता परमेश्वर के विराट शरीर के अभिन्न अंगस्वरूप हैं, अतः वे स्वतन्त्र नहीं होता। वैदिक साहित्य में कथन है, “परमात्मा रूप में भगवान देवता के हृदय में भी स्थित रहते हैं, अतः वे देवता के माध्यम से जीव की इच्छा को पूरा करने की व्यवस्था करते हैं। किन्तु जीव तथा देवता दोनों ही परमात्मा की इच्छा पर आश्रित हैं। वे स्वतन्त्र नहीं हैं।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यः यः – जो जो; याम् याम् – जिस जिस; तनुम् – देवता के रूप को; भक्तः – भक्त; श्रद्धया – श्रद्धा से; अर्चितुम् – पूजा करने के लिए; इच्छति – इच्छा करता है; तस्य तस्य – उस उसकी; अचलाम् – स्थिर; श्रद्धाम् – श्रद्धा को; ताम् – उस; एव – निश्चय ही; विदधामि – देता हूँ; अहम् – मैं।

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