श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 582

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-19


इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत: ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥19॥[1]

भावार्थ

इस प्रकार मैंने कर्म क्षेत्र (शरीर), ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है। इसे केवल मेरे भक्त ही पूरी तरह समझ सकते हैं और इस तरह मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं।

तात्पर्य

भगवान ने शरीर, ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है। यह ज्ञान तीन वस्तुओं का है- ज्ञाता, ज्ञेय तथा जानने की विधि। ये तीनों मिलकर विज्ञान कहलाते हैं। पूर्ण ज्ञान भगवान के अनन्य भक्तों द्वारा प्रत्यक्षः समझा जा सकता है। अन्य इसे समझ पाने में असमर्थ रहते हैं। अद्वैतवादियों का कहना है कि अन्तिम अवस्था में ये तीनों बातें एक हो जाती हैं, लेकिन भक्त इसे नहीं मानते। ज्ञान तथा ज्ञान के विकास का अर्थ है, अपने आपको कृष्णभावनामृत में समझना। हम भौतिक चेतना द्वारा संचालित होते हैं, लेकिन ज्योंही हम अपनी सारी चेतना कृष्ण के कार्यों में स्थानान्तरित कर देते हैं, और इसका अनुभव करते हैं कि कृष्ण ही सब कुछ हैं, तो हम वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, ज्ञान तो भक्ति को पूर्णतया समझने के लिये प्रारम्भिक अवस्था है। पन्द्रहवें अध्याय में इसकी विशद व्याख्या की गई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इति=इस प्रकार; क्षेत्रम्=कर्म का क्षेत्र (शरीर); तथा=भी; ज्ञानम्=ज्ञान; ज्ञेयम्=जानने योग्य; च=भी; उक्तम्=कहा गया; समासतः=संक्षेप में; मत्=भक्तः= मेरा भक्त; एतत्=यह सब; विज्ञाय=जान कर; मत्=भावाय=मेरे स्वभाव को; उपपद्यते=प्राप्त करता है।

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