श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 227

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-40

अज्ञश्चाद्यधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥[1]

भावार्थ

किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते है। संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है।

तात्पर्य

भगवद्गीता सभी प्रामाणिक एवं मान्य शास्त्रों में सर्वोत्तम है। जो लोग पशुतुल्य हैं उनमें न तो प्रामाणिक शास्त्रों के प्रति कोई श्रद्धा है और न उनका ज्ञान होता है और कुछ लोगों को यद्यपि उनका ज्ञान होता है और उनमें से वे उद्धरण देते रहते हैं, किन्तु उनमें वास्तविक विश्वास नहीं करते। यहाँ तक कि कुछ लोग जिनमें भगवद्गीता जैसे शास्त्रों में श्रद्धा होती भी है, फिर भी वे न तो भगवान कृष्ण में विश्वास करते हैं, न उनकी पूजा करते हैं। ऐसे लोगों को कृष्णभावनामृत का कोई ज्ञान नहीं होता। वे नीचे गिरते हैं। उपर्युक्त सभी कोटि के व्यक्तियों में जो श्रद्धालु नहीं हैं और सदैव संशयग्रस्त रहते हैं, वे तनिक भी उन्नति नहीं कर पाते। जो लोग ईश्वर तथा उनके वचनों में श्रद्धा नहीं रखते उन्हें न तो इस संसार में न तो भावी लोक में कुछ हाथ लगता है। उनके लिए किसी भी प्रकार का सुख नहीं है। अतः मनुष्य को चाहिए कि श्रद्धाभाव से शास्त्रों के सिद्धान्तों का पालन करे और ज्ञान प्राप्त करे। इसी ज्ञान से मनुष्य आध्यात्मिक अनुभूति के दिव्य पद तक पहुँच सकता है। दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिक उत्थान में संशयग्रस्त मनुष्यों को कोई स्थान नहीं मिलता। अतः मनुष्य को चाहिए कि परम्परा से चले आ रहे महान आचार्यों के पदचिह्नों का अनुसरण करे और सफलता प्राप्त करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अज्ञः – मुर्ख, जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है; च – तथा; अश्रद्द धानः – शास्त्रों में श्रद्धा से विहीन; च – भी; संशय – शंकाग्रस्त; आत्मा – व्यक्ति; विनश्यति – गिर जाता है; न – न; अयम् – इस; लोकः – जगत में; अस्ति – है; न – न तो; परः – अगले जीवन में; न – नहीं; सुखम् – सुख; संशय – संशयग्रस्त; आत्मनः – व्यक्ति के लिए।

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