श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 20

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
अध्याय-1 : श्लोक-26

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।
श्वश्रुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि॥[1]

भावार्थ

अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा।

तात्पर्य

अर्जुन युद्धभूमि में अपने सभी सम्बंधियों को देख सका। वह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों, भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं, शल्य तथा शकुनि जैसे मामाओं, दुर्योधन जैसे भाइयों, लक्ष्मण जैसे पुत्रों, अश्वत्थामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिन्तकों को देख सका। वह उन सेनाओं को भी देख सका जिनमें उसके अनेक मित्र थे।

अध्याय-1 : श्लोक- 27

 
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्॥[2]

भावार्थ

जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तत्र – वहाँ; अपश्यत् – देखा; स्थितान् – खड़े; पार्थः – पार्थ ने; पितॄन् – पितरों (चाचा-ताऊ) को; अथ – भी; पितामहान – पितामहों को; आचार्यान् – शिक्षकों को; मातुलान् – मामाओं को; भ्रातृन् – भाइयों को; पुत्रान् – पुत्रों को; पौत्रान् – पौत्रों को; सखीन् – मित्रों को; तथा – और; श्वशुरान् – श्वसुरों को; सुहृदः – शुभचिन्तकों को; च – भी; एव – निश्चय ही; सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों पक्षों की; अपि – सहित।
  2. तान् – उन सब को; समीक्ष्य – देखकर; सः – वह; कौन्तेयः – कुन्तीपुत्र; सर्वान् – सभी प्रकार के; बन्धून् – सम्बन्धियों को; अवस्थितान् – स्थित; कृपया – दयावश; परया – अत्यधिक; आविष्टः – अभिभूत; विषीदन् – शोक करता हुआ; इदम् – इस प्रकार; अब्रवीत् – बोला;।

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