श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 463

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-32


सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।[1]

भावार्थ

हे अर्जुन ! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ। मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ।

तात्पर्य

सृष्टियों में सर्वप्रथम समस्त भौतिक तत्त्वों की सृष्टि की जाती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, यह दृश्यजगत महाविष्णु ‘गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरदकशायी विष्णु द्वारा उत्पन्न और संचालित है। बाद में इसका संहार शिव जी द्वारा किया जाता है। ब्रह्मा गौण स्रष्टा हैं। सृजन, पालन तथा संहार करने वाले ये सारे अधिकारी परमेश्वर के भौतिक गुणों के अवतार हैं। अतः वे ही समस्त सृष्टि के आदि, मध्य तथा अन्त हैं।

उच्च विद्या के लिए ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं, यथा चारों वेद, उनके छह वेदांग, वेदान्तसूत्र, तर्क ग्रंथ, धर्मग्रंथ, पुराण। इस प्रकार कुल चौदह प्रकार के ग्रंथ हैं। इनमें से अध्यात्म विद्या सम्बन्धी ग्रंथ, विशेष रूप से वेदान्तसूत्र, कृष्ण का स्वरूप है।

तर्कशास्त्रियों में विभिन्न प्रकार के तर्क होते रहते हैं। प्रमाण द्वारा तर्क की पुष्टि, जिससे विपक्ष का भी समर्थन हो, जल्प कहलाता है। प्रतिद्वन्द्वी को हारने का प्रयास मात्र वितण्डा है, किन्तु वास्तविक निर्णय वाद कहलाता है। यह निर्णयात्मक सत्य कृष्ण का स्वरूप है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्गाणाम्-सम्पूर्ण सृष्टियों का; आदिः-प्रारम्भ; अन्तः-अन्त; च-तथा; मध्यम्-मध्य; च-भी; एव-निश्चय ही; अहम्-मैं हूँ; अर्जुन-हे अर्जुन; अध्यात्म-विद्या-अध्यात्मज्ञान; विद्यानाम्-विद्याओं में; वादः-स्वाभाविक निर्णय; प्रवदताम्-तर्कों में; अहम्-मैं हूँ।

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