श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 665

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-1-3


श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥1॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥2॥
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥3॥[1]

भावार्थ

भगवान ने कहा- हे भरतपुत्र! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म-संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुणा, लोभविहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्ति- ये सारे दिव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृति से सम्पन्न देवतुल्य पुरुषों में पाये जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच= भगवान ने कहा; अभयम्= निर्भयता; सत्त्व-संशुद्धिः= अपने अस्तित्व की शुद्धि; ज्ञान= ज्ञान में; योग= संयुक्त होने की; व्यवस्थितिः= स्थिति; दानम्= दान; दमः= मन का निग्रह; च= तथा; यज्ञः= यज्ञ की सम्पन्नता; च= तथा; स्वाध्यायः= वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन; तपः= तपस्या; आर्जवम्= सरलता; अहिंसा= अहिंसा; सत्यम्= सत्यता; अक्रोधः= क्रोध से मुक्ति; त्यागः= त्याग; शान्तिः= मनःशान्ति; अपैशुनम्= छिद्रान्वेषण से अरुचि; दया= करुणा; भूतेषु= समस्त जीवों के प्रति; अलोलुप्त्वम्= लोभ से मुक्ति; मार्दवम्= भद्रता; हृीः= लज्जा; अचापलम्= संकल्प; तेजः= तेज, बल; क्षमा= क्षमा; धृतिः= धैर्य; शौचम्= पवित्रता; अद्रोहः= ईर्ष्‍या से मुक्ति; न= नहीं; अति मानिता= सम्मान की आशा; भवन्ति= हैं; सम्पदम्= गुण; दैवीम्= दिव्य स्वभाव; अभिजातस्य= उत्पन्न हुए का; भारत= हे भरतपुत्र।

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