श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 774

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-45


स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: ।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥45॥[1]

भावार्थ

अपने अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है। अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वे स्वे= अपने अपने; कर्मणि= कर्म में; अभिरतः= संलग्न; संसिद्धिम्= सिद्धि को; लभते= प्राप्त करता है; नरः= मनुष्य; स्व-कर्म= अपने कर्म में; निरतः= लगा हुआः सिद्धिम्= सिद्धि को; यथा= जिस प्रकार; विदन्ति= प्राप्त करता है; तत्= वह; शृणु= सुनो।

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