श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 283

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-26

यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥[1]

भावार्थ

मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो,मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।

तात्पर्य

मन स्वभाव से चंचल और अस्थिर है। किन्तु स्वरूपसिद्ध योगी को मन को वश में लाना होता है, उस पर मन का अधिकार नहीं होना चाहिए। जो मन को (तथा इन्द्रियों को भी) वश में रखता है, वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है और जो मन के वशीभूत होता है वह गोदास अर्थात इन्द्रियों का सेवक कहलाता है। गोस्वामी इन्द्रियसुख के मानक से भिज्ञ होता है। दिव्य इन्द्रियसुख वह है जिसमें इन्द्रियाँ हृषिकेश अर्थात इन्द्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण की सेवा में लगी रहती हैं। शुद्ध इन्द्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्णचेतना या कृष्णभावनामृत कहलाती है। इन्द्रियों को पूर्णवश में लाने की यही विधि है। इससे भी बढ़कर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धि भी है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यतः यतः – जहाँ जहाँ भी; निश्चलति – विचलित होता है; मनः – मन; चञ्चलम् – चलायमान; अस्थिरम् – अस्थिर; ततः ततः – वहाँ वहाँ से; नियम्य – वश में करके; एतत् – इस; आत्मनि – अपने; एव – निश्चय ही; वशम् – वश में; नयेत् – ले आए।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः