श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 423

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-33


किंपुनर्ब्राह्मणाःपुण्याभक्ताराजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखंलोकमिमंप्राप्यभजस्वमाम्।।[1]

भावार्थ

फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है! अतः इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाओ।

तात्पर्य

इस संसार में कई श्रेणियों के लोग हैं, किन्तु तो भी यह संसार किसी के लिए सुखमय स्थान नहीं है। यहाँ स्पष्ट कहा गया है– अनित्यम् असुखं लोकम्– यह जगत् अनित्य तथा दुखमय है और किसी भी भले मनुष्य के रहने लायक नहीं है। भगवान इस संसार को क्षणिक तथा दुखमय घोषित कर रहे हैं। कुछ दार्शनिक, विशेष रूप से मायावादी, कहते हैं कि यह संसार मिथ्या है, किन्तु भगवद्गीता से हम यह जान सकते हैं कि यह संसार मिथ्या नहीं है, यह अनित्य है। अनित्य तथा मिथ्या में अन्तर है। यह संसार अनित्य है, किन्तु एक दूसरा भी संसार है जो नित्य है। यह संसार दुखमय है, किन्तु दूसरा संसार नित्य तथा आनन्दमय है।

अर्जुन का जन्म ऋषितुल्य राजकुल में हुआ था। अतः भगवान उससे भी कहते हैं, “मेरी सेवा करो, और शीघ्र ही मेरे धाम को प्राप्त करो।” किसी को भी इस अनित्य संसार में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि यह दुखमय है। प्रत्येक व्यक्ति को भगवान के हृदय से लगना चाहिए, जिससे वह सदैव सुखी रह सके। भगवद्भक्ति ही एकमात्र ऐसी विधि है जिसके द्वारा सभी वर्गों के लोगों की सारी समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनामृत स्वीकार करके अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. किम्–क्या, कितना; पुनः–फिर; ब्राह्मणाः–ब्राह्मण; पुण्याः–धर्मात्मा; भक्ताः–भक्तगण; राज-ऋषयः–साधु राजे; तथा–भी; अनित्यम्–नाशवान; असुखम्–दुखमय; लोकम्–लोक को; इमम्–इस; प्राप्य–प्राप्त करके; भजस्व–प्रेमाभक्ति में लगो; माम्–मेरी।

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