श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 490

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-19

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।[1]

भावार्थ

आप आदि, मध्य तथा अन्त से रहित हैं। आपका यश अनन्त है। आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य चन्द्रमा आपकी आँखें हैं। मैं आपके मुख से प्रज्जवलित अग्नि निकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलाते हुए देख रहा हूँ।

तात्पर्य

भगवान् के षड्ऐश्वर्यों की कोई सीमा नहीं है। यहाँ पर तथा अन्यत्र भी पुनरुक्ति पाई जाती है, किन्तु शास्त्रों के अनुसार कृष्ण की महिमा की पुनरुक्ति कोई साहित्यिक दोष नहीं है। कहा जाता है कि मोहग्रस्त होने या परम आह्लाद के समय या आश्चर्य होने पर कथनों की पुनरुक्ति हुआ करती है, यह कोई दोष नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनादि – आदिरहित; मध्य – मध्य; अन्तम् – या अन्त; अनन्त – असीम; वीर्यम् – महिमा; अनन्त – असंख्य; बाहुम् – भुजाएँ; शशि – चन्द्रमा; सूर्य – तथा सूर्य; नेत्रम् – आँखें; पश्यामि – देखता हूँ; त्वाम् – आपको; दीप्त – प्रज्जवलित; हुताश-वक्त्रम् – आपके मुख से निकलती अग्नि को; स्व-तेजसा – अपने तेज से; विश्वम् – विश्व को; इदम् – इस; तपन्तम् – तपाते हुए।

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