श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 36

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-2

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥[1]

भावार्थ

श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो। इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है।

तात्पर्य

श्रीकृष्ण तथा भगवान् अभिन्न हैं, इसीलिए श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण गीता में भगवान् ही कहा गया है। भगवान् परम सत्य की पराकाष्ठा हैं। परम सत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्थाओं में होता है– ब्रह्म या निर्विशेष सर्वव्यापी चेतना, परमात्मा या भगवान् का अन्तर्यामी रूप जो समस्त जीवों के हृदय में है तथा भगवान् या श्रीभगवान् कृष्ण। श्रीमद्भागवत में [2] परम सत्य की यह धारणा इस प्रकार बताई गई है –

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्यानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेतिभगवानिति शब्द्यते॥

“परम सत्य का ज्ञाता परम सत्य का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्थाओं में करता है, और ये सब अवस्थाएँ एकरूप हैं। ये ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के रूप में व्यक्त की जाती हैं।”

इन तीन दिव्य पक्षों को सूर्य के दृष्टान्त द्वारा समझाया जा सकता है क्योंकि उसके भी तीन भिन्न पक्ष होते हैं– यथा, धूप(प्रकाश), सूर्य की सतह तथा सूर्यलोक स्वयं। जो सूर्य के प्रकाश का अध्ययन करता है, वह नौसिखिया है। जो सूर्य की सतह को समझता है, वह कुछ आगे बढ़ा हुआ होता है, और जो सूर्यलोक में प्रवेश कर सकता है, वह उच्चतम ज्ञानी है। जो नौसिखिया सूर्य प्रकाश–उसकी विश्व व्याप्ति तथा उसकी निर्विशेष प्रकृति के अखण्ड तेज–के ज्ञान से ही तुष्ट हो जाता है, वह उस व्यक्ति के समान है, जो परम सत्य के ब्रह्म रूप को ही समझ सकता है। जो व्यक्ति कुछ अधिक जानकार है, वह सूर्य गोले के विषय में जान सकता है, जिसकी तुलना परम सत्य के परमात्मा स्वरूप से की जाति है। जो व्यक्ति सूर्यलोक के अन्तर में प्रवेश कर सकता है, उसकी तुलना उससे की जाती है, जो परम सत्य के साक्षात् रूप की अनुभूति प्राप्त करता है। अतः जिन भक्तों ने परमसत्य के भगवान् स्वरूप का साक्षात्कार किया है, वे सर्वोच्च अध्यात्मवादी हैं, यद्यपि परम सत्य के अध्ययन में रत सारे विद्यार्थी एक ही विषय के अध्ययन में लगे हुए हैं। सूर्य का प्रकाश, सूर्य का गोला तथा सूर्यलोक की भीतरी बातें– इन तीनों को एक दूसरे से विलग नहीं किया जा सकता, फिर भी तीनों अवस्थाओं के अध्येता एक ही श्रेणी के नहीं होते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; कुतः – कहाँ से; त्वा – तुमको; कश्मलम् – गंदगी, अज्ञान; इदम् – यह शोक; विषमे – इस विषम अवसर पर; समुपस्थितम् – प्राप्त हुआ; अनार्य – वे लोग जो जीवन के मूल्य को नहीं समझते; जुष्टम् – आचरित; अस्वर्ग्यम् – उच्च लोकों को जो न ले जाने वाला; अकीर्ति – अपयश का; करम् – कारण; अर्जुन – हे अर्जुन।
  2. 1.2.11

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