श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 112

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥[1]

भावार्थ

जो इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय-संयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिर बुद्धि कहलाता है।

तात्पर्य

इस श्लोक में बताया गया है कि योगसिद्धि की चरम अनुभूति कृष्णभावनामृत ही है। जब तक कोई कृष्णभावनाभावित नहीं होता तब तक इन्द्रियों को वश में करना सम्भव नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, दुर्वासा मुनि का झगड़ा महाराज अम्बरीष से हुआ, क्योंकि वे गर्ववश महाराज अम्बरीष पर क्रुद्ध हो गये, जिससे अपनी इन्द्रियों को रोक नहीं पाये। दूसरी ओर यद्यपि राजा मुनि के समान योगी न था, किन्तु वह कृष्ण का भक्त था और उसने मुनि के सारे अन्याय सः लिये, जिससे वह विजयी हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तानि – उन इन्द्रियों को; सर्वाणि – समस्त; संयम्य – वश में करके; युक्तः – लगा हुआ; आसीत – स्थित होना; मत्-परः – मुझमें; वशे – पूर्णतया वश में; हि – निश्चय ही; यस्य – जिसकी; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; तस्य – उसकी; प्रज्ञा – चेतना; प्रतिष्ठिता – स्थिर।

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