श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 488

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-16


अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं 
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।[1]

भावार्थ

हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है। आपमें न अन्त दीखता है, न मध्य और न आदि।

तात्पर्य

कृष्ण भगवान् हैं और असीम हैं, अतः उनके माध्यम से सब कुछ देखा जा सकता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनेक – कई; बाहु – भुजाएँ; उदार – पेट; वक्त्र – मुख; नेत्रम् –आँखें; पश्यामि – देख रहा हूँ; त्वाम् – आपको; सर्वतः – चारों ओर; अनन्त-रूपम् – असंख्य रूप; न अन्तम् – अन्तहीन, कोई अन्त नहीं है; न मध्यम् – मध्य रहित; न पुनः – न फिर; तव – आपका; आदिम् – प्रारम्भ; पश्यामि – देखता हूँ; विश्व-ईश्वर – हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्वरूप – ब्रह्माण्ड के रूप में।

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