श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 674

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-5


दैवीसम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुच: संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥5॥[1]

भावार्थ

दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं। हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो।

तात्पर्य

भगवान कृष्ण अर्जुन को यह कह कर प्रोत्साहित करते हैं कि वह आसुरी गुणों के साथ नहीं जन्मा है। युद्ध में उसका सम्मिलित होना आसुरी नहीं है, क्योंकि वह उसके गुण-दोषों पर विचार कर रहा था। वह यह विचार कर रहा था कि भीष्म तथा द्रोण जैसे प्रतिष्ठित महापुरुषों का वध किया जाये या नहीं, अतः वह ना तो क्रोध के वशीभूत होकर कार्य कर रहा था, न झूठी प्रतिष्ठा या निष्ठुरता के अधीन होकर, अतः वह आसुरी स्वभाव का नहीं था। क्षत्रिय के लिए शत्रु पर बाण बरसाना दिव्य माना जाता है और ऐसे कर्तव्य से विमुख होना आसुरी। अतएव अर्जुन के लिए शोक (संताप) करने का कोई कारण न था। जो कोई भी जीवन के विभिन्न आश्रमों के विधानों का पालन करता है, वह दिव्य पद पर स्थित होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दैवी= दिव्य; सम्पत्= सम्पत्ति; विमोक्षाय= मोक्ष के लिए; निबन्धाय= बन्धन के लिए; आसुरी= आसुरी गुण; मता= माने जाते हैं; मा= मत; शुचः= चिन्ता करो; सम्पदम्= सम्पत्ति; दैवीम्= दिव्य; अभिजातः= उत्पन्न; असि= हो; पाण्डव= हे पाण्डुपुत्र।

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