श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 764

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-35


यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृति: सा पार्थ तामसी ॥35॥[1]

भावार्थ

हे पार्थ! जो धृति स्वप्न, भय, शोक, विषाद, तथा मोह के परे नहीं जाती, ऐसी दुर्बुद्धिपूर्ण धृति तामसी है।

तात्पर्य

इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि सतोगुणी मनुष्य स्पप्न नहीं देखता। यहाँ पर स्वप्न का अर्थ अति निद्रा है। स्वप्न सदा आता है, चाहे वह सात्त्विक हो, राजस हो या तामसी, स्वप्न तो प्राकृतिक घटना है। लेकिन जो अपने को अधिक सोने से नहीं बचा पाते, जो भौतिक वस्तुओं को भोगने के गर्व से नहीं बचा पाते, जो सदैव संसार पर प्रभुत्व जताने का स्वप्न देखते रहते हैं और जिनके प्राण, मन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार लिप्त रहतीं हैं, वे तामसी धृति वाले कहे जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यया= जिससे; स्वप्नम्= स्वप्न; भयम्= भय; शोकम्= शोक; विषादम्= विषाद, खिन्नता; मदम्= मोह को; एव= निश्चय ही; च= भी; न= कभी नहीं; विमुच्चति= त्यागती है; दुर्मेधा= दुर्बुद्धि; धृति= धृति; सा= वह; पार्थ= हे पृथापुत्र; तामसी= तमोगुणी।

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