श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 745

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-16


तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य: ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति: ॥16॥[1]

भावार्थ

अतएव जो इन पाँचों कारणों को न मान कर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देख सकता।

तात्पर्य

मूर्ख व्यक्ति यह नहीं समझता कि परमात्मा उसके अन्तर में मित्र रूप में बैठा है और उसके कर्मों का संचालन कर रहा है। यद्यपि स्थान, कर्ता, चेष्टा तथा इन्द्रियाँ भौतिक कारण हैं, लेकिन अन्तिम (मुख्य) कारण तो स्वयं भगवान हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि केवल चार भौतिक कारणों को ही न देखे, अपितु परम सक्षम कारण को भी देखे। जो परमेश्वर को नहीं देखता, वह अपने आपको ही कर्ता मानता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तत्र- वहाँ; एवम्- इस प्रकार; सति- होकर; कर्तारम्- कर्ता; आत्मानम्- स्वयं का; केवलम्- केवल; तु- लेकिन; यः- जो; पश्यति- देखता है; अकृत-बुद्धित्वात्-कुबुद्धि के कारण; न-कभी नहीं; सः- वह; पश्यति- देखता है; दुर्मतिः- मूर्ख।

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