श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 354

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-5


अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥[1]

भावार्थ

और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है। इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है।

तात्पर्य

इस श्लोक में कृष्णभावनामृत की महत्ता दर्शित की गई है। जो कोई भी कृष्णभावनामृत में अपना शरीर छोड़ता है, वह तुरन्त परमेश्वर के दिव्य स्वभाव (मद्भाव) को प्राप्त होता है। परमेश्वर शुद्धातिशुद्ध है, अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होता है, वह भी शुद्धातिशुद्ध होता है। स्मरन शब्द महत्त्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण का स्मरण उस अशुद्ध जीव से नहीं हो सकता जिसने भक्ति में रहकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास नहीं किया। अतः मनुष्य को चाहिए कि जीवन के प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करे। यदि जीवन के अन्त में सफलता वांछनीय है तो कृष्ण का स्मरण अनिवार्य है। अतः मनुष्य को निरन्तर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे– इस महामन्त्र का जप करना चाहिए। भगवान चैतन्य ने उपदेश दिया है कि मनुष्य को वृक्ष के समान सहिष्णु होना चाहिए (तरोरिवसहिष्णुना)। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे– का जप करने वाले व्यक्ति को अनेक व्यवधानों का सामना करना पड़ सकता है। तो भी इस महामन्त्र का जप करते रहना चाहिए, जिससे जीवन के अन्त समय कृष्णभावनामृत का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त हो सके।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्त-काले – मृत्यु के समय; च – भी; माम् – मुझको; एव – निश्चय ही; स्मरन् – स्मरण करते हुए; मुक्त्वा – त्याग कर; कलेवरम् – शरीर को; यः – जो; प्रयाति – जाता है; सः – वह; मत्-भावम् – मेरे स्वभाव को; याति – प्राप्त करता है; न – नहीं; अस्ति – है; अत्र – यहाँ; संशयः – सन्देह।

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