श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 327

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-15

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥[1]

भावार्थ

जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते।

तात्पर्य

भगवद्गीता में यह कहा गया है कि श्रीभगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने से मनुष्य प्रकृति के कठोर नियमों को लाँघ सकता है। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि फिर विद्वान दार्शनिक, वैज्ञानिक, व्यापारी, शासक तथा जनता के नेता सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण क्यों नहीं ग्रहण करते? बड़े-बड़े जननेता विभिन्न विधियों से विभिन्न योजनाएँ बनाकर अत्यन्त धैर्यपूर्वक जन्म-जन्मान्तर तक प्रकृति के नियमों से मुक्ति की खोज करते हैं। किन्तु यदि वही मुक्ति भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने मात्र से सम्भव हो तो ये बुद्धिमान तथा श्रमशील मनुष्य इस सरल विधि को क्यों नहीं अपनाते?

गीता इसका उत्तर अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में देती है। समाज के वास्तविक विद्वान नेता यथा ब्रह्मा, शिव, कपिल, कुमारगण, मनु, व्यास, देवल, असित, जनक, प्रह्लाद, बलि तथा उनके पश्चात माध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, श्रीचैतन्य तथा बहुत से अन्य श्रद्धावान दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, शिक्षक, विज्ञानी आदि हैं जो सर्वशक्तिमान परमपुरुष के चरणों में शरण लेते हैं। किन्तु जो लोग वास्तविक वास्तविक दार्शनिक, विज्ञानी, शिक्षक, प्रशासक आदि नहीं हैं, किन्तु भौतिक लाभ के लिए ऐसा बनते हैं, वे परमेश्वर की योजना या पथ को स्वीकार नहीं करते। उन्हें ईश्वर का कोई ज्ञान नहीं होता; वे अपनी सांसारिक योजनाएँ बनाते हैं और संसार की समस्याओं को हल करने के लिए अपने व्यर्थ प्रयासों के द्वारा स्थिति को और जटिल बना लेते हैं। चूँकि भौतिक शक्ति इतनी बलवती है, इसीलिए वह नास्तिकों की अवैध योजनाओं का प्रतिरोध करती है और योजना आयोगों के ज्ञान को ध्वस्त कर देती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न – नहीं; माम् – मेरी; दुष्कृतिनः – दुष्ट; मूढाः – मूर्ख; प्रपद्यन्ते – शरण ग्रहण करते हैं; नर-अधमाः – मनुष्यों में अधम; मायया – माया के द्वारा; अपहृत – चुराये गये; ज्ञानाः – ज्ञान वाले; आसुरम् – आसुरी; भावम् – प्रकृति या स्वभाव को; आश्रिताः – स्वीकार किये हुए।

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