श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 73

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति मोटे अक्षर
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥[1]

भावार्थ

कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते।

तात्पर्य

चूँकि गितोपनिषद् उपनिषदों के सिद्धान्त पर आधारित है, अतः कठोपनिषद् में[2]इस श्लोक का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है–

श्रवणयापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्योऽस्य ज्ञाता कुश्लानुशिष्टः॥

विशाल पशु, विशाल वटवृक्ष तथा एक इंच स्थान में लाखों करोड़ों की संख्या में उपस्थित सूक्ष्मकीटाणुओं के भीतर अणु-आत्मा की उपस्थिति निश्चित रूप से आश्चर्यजनक है। अल्पज्ञ तथा दुराचारी व्यक्ति अणु-आत्मा के स्फुलिंग के चमत्कारों को नहीं समझ पाता, भले ही उसे बड़े से बड़ा ज्ञानी, जिसने विश्व के प्रथम प्राणी ब्रह्मा को भी शिक्षा दी हो, क्यों न समझाए। वस्तुओं के स्थूल भौतिक बोध के कारण इस युग के अधिकांश व्यक्ति इसकी कल्पना नहीं कर सकते कि इतना सूक्ष्मकण किस प्रकार इतना विराट तथा लघु बन सकता है। अतः लोग आत्मा को उसकी संरचना या उसके विवरण के आधार पर ही आश्चर्य से देखते हैं। इन्द्रियतृप्ति की बातों में फँस कर लोग भौतिक शक्ति (माया) से इस तरह मोहित होते हैं कि उनके पास आत्मज्ञान को समझने का अवसर ही नहीं रहता, यद्यपि यह तथ्य है कि आत्म-ज्ञान के बिना सारे कार्यों का दुष्परिणाम जीवन-संघर्ष में पराजय के रूप में होता है। सम्भवतः उन्हें इसका कोई अनुमान नहीं होता कि मनुष्य को आत्मा के विषय में चिन्तन करना चाहिए और दुखों का हल खोज निकालना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आश्चर्यवत् – आश्चर्य की तरह; पश्यति – देखता है; कश्चित – कोई; एनम् – इस आत्मा को; आश्चर्यवत् – आश्चर्य की तरह; वदति – कहता है; तथा – जिस प्रकार; एव – निश्चय ही; च – भी; अन्यः – दूसरा; आश्चर्यवत् – आश्चर्य से; च – और; एनम् – इस आत्मा को; अन्यः – दूसरा; शृणोति – सुनता है; श्रुत्वा – सुनकर; अपि – भी; एनम् – इस आत्मा को; वेड – जानता है; न – कभी नहीं; च – तथा; एव – निश्चय ही; कश्चित् – कोई।
  2. 1.2.7

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