श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-28
श्रुभाश्रुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
इस तरह तुम कर्म के बन्धन तथा इसके शुभाशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे। इस संन्यास योग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे।
गुरु के निर्देशन में कृष्णभावनामृत में रहकर कर्म करने को युक्त कहते हैं। पारिभाषिक शब्द युक्त-वैराग्य है। श्री रूप गोस्वामी ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है[2]- अनासक्तस्य विषयान्यथार्हमुपयुञ्जतः। श्री रूप गोस्वामी कहते हैं कि जब तक हम इस जगत में हैं, तब तक हमें कर्म करना पड़ता है, हम कर्म करना बन्द नहीं कर सकते। अतः यदि कर्म करके उसके फल कृष्ण को अर्पित कर दिये जायँ तो वह युक्त वैराग्य कहलाता है। वस्तुतः संन्यास में स्थित होने पर ऐसे कर्मों से चित्त रूपी दर्पण स्वच्छ हो जाता है और करता ज्यों-ज्यों क्रमशः आत्म-साक्षात्कार की ओर प्रगति करता जाता है, त्यों-त्यों परमेश्वर के प्रति पूर्णतया समर्पित होता रहता है। अतएव अन्त में वह मुक्त हो जाता है और यह मुक्ति भी विशिष्ट होती है। इस मुक्ति से वह ब्रह्मज्योति में तदाकार नहीं होता, अपितु भगवद्धाम में प्रवेश करता है। यहाँ स्पष्ट उल्लेख है– माम् उपैष्यसी–वह मेरे पास आता है, अर्थात मेरे धाम वापस आता है। मुक्ति की पाँच विभिन्न अवस्थाएँ हैं और यहाँ स्पष्ट किया गया है कि जो भक्त जीवन भर परमेश्वर के निर्देशन में रहता है, वह ऐसी अवस्था को प्राप्त हुआ रहता है, जहाँ से वह शरीर त्यागने के बाद भगवद्धाम जा सकता है और भगवान की प्रत्यक्ष संगति में रह सकता है। जिस व्यक्ति में अपने जीवन को भगवत्सेवा में रत रखने के अतिरिक्त अन्य कोई रचित नहीं होती, वही वास्तविक संन्यासी है। ऐसा व्यक्ति भगवान की पर इच्छा पर आश्रित रहते हुए अपने को उनका नित्य दास मानता है। अतः वह जो कुछ करता है, भगवान के लाभ के लिए करता है। वह सकामकर्मों या वेदवर्णित कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता। सामान्य मनुष्यों के लिए वेदवर्णित कर्तव्यों को सम्पन्न करना अनिवार्य होता है। किन्तु शुद्धभक्त भगवान की सेवा में पूर्णतया रत होकर भी कभी-कभी वेदों द्वारा अनुमोदित कर्तव्यों का विरोध करता प्रतीत होता है, जो वस्तुतः विरोध नहीं है। अतः वैष्णव आचार्यों का कथन है कि बुद्धिमान व्यक्ति भी शुद्ध भक्त की योजनाओं तथा कार्यों को नहीं समझ सकता। ठीक शब्द है– ताँर वाक्य, क्रिया, मुद्रा विज्ञेह ना बुझय।[3] इस प्रकार जो व्यक्ति भगवान की सेवा में रत है, या जो निरन्तर योजना बनाता रहता है कि किस तरह भगवान की सेवा की जाये, उसे ही वर्तमान में पूर्णतया मुक्त मानना चाहिए और भविष्य में उसका भगवद्धाम जाना ध्रुव है। जिस प्रकार कृष्ण आलोचना से परे हैं, उसी प्रकार वह भक्त भी सारी भौतिक आलोचना से परे हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शुभ–शुभ; अशुभ–अशुभ; फलैः–फलों के द्वारा; एवम्–इस प्रकार; मोक्ष्यसे–मुक्त हो जाओगे; कर्म–कर्म के; बन्धनैः–बन्धन से; संन्यास–संन्यास के; योग–योग से; युक्त-आत्मा–मन को स्थिर करके; विमुक्तः–मुक्त हुआ; माम्–मुझे; उपैष्यसी–प्राप्त होगे।
- ↑ भक्तिरसामृत सिन्धु 2.255
- ↑ चैतन्यचरितामृत, मध्य 23.39
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