श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 729

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार-संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-1


अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥1॥[1]

भावार्थ

अर्जुन ने कहा- हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषीकेश! मैं त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ।

तात्पर्य

वास्तव में भगवद्गीता सत्रह अध्यायों में ही समाप्त हो जाती है। अठारहवाँ अध्याय तो पूर्वविवेचित विषयों का पूरक संक्षेप है। प्रत्येक अध्याय में भगवान बल देकर कहते हैं कि भगवान की सेवा ही जीवन का चरम लक्ष्य है। इसी समय को इस अठारहवें अध्याय में ज्ञान के परम गुह्य मार्ग के रूप में संक्षेप में बताया गया है। प्रथम छह अध्यायों में भक्तियोग पर बल दिया गया- योगिनामपि सर्वेषाम्...- ‘‘समस्त योगियों में से जो योगी अपने अन्तर में सदैव मेरा चिन्तन करता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।’’ अगले छह अध्यायों में शुद्ध भक्ति, उसकी प्रकृति तथा कार्यों का विवेचन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुनःउवाच= अर्जुन ने कहा; संन्यासस्य= संन्यास (त्याग) का; महाबाहो= हे बलशाली भुजाओं वाले; तत्त्वम्= सत्य को; इच्छामि= चाहता हूँ; वेदितुम= जानता; त्यागस्य= त्याग (संन्यास) का; च= भी; हृषीकेश= हे इन्द्रियों के स्वामी; पृथक्= भिन्न रूप से; केशि-निषूदन= हे केशी असुर के संहर्ता।

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