श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 202

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-17

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥[1]

भावार्थ

कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है।

तात्पर्य

यदि कोई सचमुच ही भव-बन्धन से मुक्ति चाहता है तो उसे कर्म, अकर्म तथा विकर्म के अन्तर को समझना होगा। कर्म, अकर्म तथा विकर्म के विश्लेषण की आवश्यकता है, क्योंकि यह अत्यन्त गहन विषय है। कृष्णभावनामृत को तथा गुणों के अनुसार कर्म को समझने के लिए परमेश्वर के साथ सम्बन्ध को जानना होगा। दूसरे शब्दों में, जिसने यह भलीभाँति समझ लिया है, वह जानता है कि जीवात्मा भगवान का नित्य दास है और फलस्वरूप उसे कृष्णभावनामृत में कार्य करना है। सम्पूर्ण भगवद्गीता का यही लक्ष्य है। इस भावनामृत के विरुद्ध सारे निष्कर्ष एवं परिणाम विकर्म या निषिद्ध कर्म हैं। इसे समझने के लिए मनुष्य को कृष्णभावनामृत के अधिकारियों की संगति करनी होती है और उनसे रहस्य को समझना होता है। यह साक्षात भगवान से समझने के समान है। अन्यथा बुद्धिमान से बुद्धिमान मनुष्य भी मोहग्रस्त हो जाएगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कर्मणः – कर्म का; हि – निश्चय ही; अपि – भी; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए; च – भी; विकार्मणः – अकर्म का; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए; गहना – अत्यन्त कठिन, दुर्गम; कर्मणः – कर्म की; गतिः – प्रवेश, गति।

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