श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 680

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-9


एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय: ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण:क्षयाय जगतोऽहिता: ॥9॥[1]

भावार्थ

ऐसे निष्कर्षों का अनुगमन करते हुए आसुरी लोग, जिन्होंने आत्म-ज्ञान खो दिया है और जो बुद्धिहीन हैं, ऐसे अनुपयोगी एवं भयावह कार्यों में प्रवृत्त होते हैं जो संसार का विनाश करने के लिए होता है।

तात्पर्य

आसुरी लोग ऐसे कार्यों में व्यस्त रहते हैं। जिनसे संसार का विनाश हो जाये। भगवान यहाँ कहते हैं कि वे कम बुद्धि वाले हैं। भौतिकवादी, जिन्हें ईश्वर का कोई बोध नहीं होता, सोचते हैं कि वे प्रगति कर रहे हैं। लेकिन भगवद्गीता के अनुसार वे बुद्धिहीन तथा समस्त विचारों से शून्य होते हैं। वे इसे इस भौतिक जगत् का अधिक से अधिक भोग करने का प्रयत्न करते हैं, अतएव इन्द्रियतृप्ति के लिए वे कुछ न कुछ नया आविष्कार करते रहते हैं। ऐसे भौतिक आविष्कारों को मानवसभ्यता का विकास माना जाता है, लेकिन इसका दुष्परिणाम यह होता है कि लोग अधिकाधिक हिंसक तथा क्रूर होते जाते हैं- वे पशुओं के प्रति क्रूर हो जाते हैं और अन्य मनुष्यों के प्रति भी। उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं कि एक दूसरे से किस प्रकार व्यवहार किया जाय। आसुरी लोगों में पशुवध अत्यन्त प्रधान होता है। ऐसे लोग संसार के शत्रु समझे जाते हैं, क्योंकि वे अन्ततः ऐसा आविष्कार कर लेंगे या कुछ ऐसी सृष्टि कर देंगे जिससे सबका विनाश हो जाय। अप्रत्यक्षतः यह श्लोक नाभिकीय अस्त्रों के आविष्कार की पूर्व सूचना देता है, जिसका आज सारे विश्व को गर्व है। किसी भी क्षण युद्ध हो सकता है और ये परमाणु हथियार विनाशलीला उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसी वस्तुएँ संसार के विनाश के उद्देश्य से ही उत्पन्न की जाती हैं और यहाँ पर इसका संकेत किया गया है। ईश्वर के प्रति अविश्वास के कारण ही ऐसे हथियारों का आविष्कार मानव समाज में किया जाता है- वे संसार की शान्ति तथा सम्पन्नता के लिए नहीं होते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एताम्= इस; दृष्टिम्= दृष्टि को; अवष्टभ्य= स्वीकार करके; नष्ट= खोकर; आत्मानः= अपने आप; अल्प-बुद्धयः= अल्पज्ञानी; प्रभवन्ति= फूलते= फूलते हैं; उग्र-कर्माणः= कष्टकारक कर्मां में प्रवृत्त; क्षयाय= विनाश के लिए; जगतः= संसार का; अहिताः= अनुपयोगी।

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