श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 223

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-36

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥[1]

भावार्थ

यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख-सागर को पार करने में समर्थ होगे।

तात्पर्य

श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति का सही-सही ज्ञान इतना उत्तम होता है कि अज्ञान-सागर में चलने वाले जीवन-संघर्ष से मनुष्य तुरन्त ही ऊपर उठ सकता है। यह भौतिक जगत कभी-कभी अज्ञान सागर मान लिया जाता है, तो कभी जलता हुआ जंगल। सागर में कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, जीवन-संघर्ष अत्यन्त कठिन है। यदि कोई संघर्षरत तैरने वाले को आगे बढ़कर समुद्र से निकाल लेता है तो वह सबसे बड़ा रक्षक है। भगवान से प्राप्त पूर्ण ज्ञान मुक्ति का पथ है। कृष्णभावनामृत की नाव अत्यन्त सुगम है, किन्तु उसी के साथ-साथ अत्यन्त उदात्त भी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अपि - भी; चेत् - यदि; असि - तुम हो; पापेभ्यः - पापियों सर्वेभ्यः - समस्त; पाप-कृत-तमः - सर्वाधिक पापी; सर्वम् - ऐसे समस्त पापकर्म; ज्ञान-प्ल्वेन - दिव्यज्ञान की नाव द्वारा; एव - निश्चय ही; वृजिनम् - दुखों के सागर को ; सन्तरिष्यसि - पूर्णतया पार कर जाओगे।

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