श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 783

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-51-53


बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मनं नियम्य च ।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषै व्युदस्य च ॥51॥
विविक्तसेवी लध्वाशी यतवाक्कायमानस: ।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित: ॥52॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥53॥[1]

भावार्थ

अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान में वास करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है तथा पूर्णतया विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बुद्धया= बुद्धि से; विशुद्धया= नितान्त शुद्ध; युक्तः= रत; धृत्या= धैर्य से; आत्मानम्= स्व को; नियम्य= वश में करके; च= भी; शब्द-आदीन्= शब्द आदि; विषयान्= इन्द्रियविषयों को; त्यक्त्वा= त्यागकर; राग= आसक्ति; द्वेषौ= तथा घृणा को; व्युदस्य= एक तरफ रख कर; च= भी; विविक्त-सेवी= एकान्त स्थान में रहते हुए; लघु-आशी= अल्प भोजन करने वाला; यत्= वश में करके; वाक्= वाणी; काय= शरीर; मानसः= तथा मन को; ध्यान-योगपरः= समाधि में लीन; नित्यम्= चौबीसों घण्टे; वैराग्यम्= वैराग्य का; समुपाश्रितः= आश्रय लेकर; अहंकारम्= मिथ्या अहंकार को; बलम्= झूठे बल को; दर्पम्= झूठे घमंड को; कामम्= काम को; क्रोधम्= क्रोध को; परिग्रहम्= तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह को; विमुच्य= त्याग कर; निर्ममः= स्वामित्व की भावना से रहित; शान्तः= शान्त; ब्रह्म-भूयाय= आत्म= साक्षात्कार के लिए; कल्पते= योग्य हो जाता है।

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