श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 263

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥[1]

भावार्थ

जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ कहलाता है।

तात्पर्य

जब मनुष्य भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में पूरी तरह लगा रहता है, तो वह अपने आप में प्रसन्न रहता है और इस तरह वह इन्द्रियतृप्ति या सकामकर्म में प्रवृत्त नहीं होता। अन्यथा इन्द्रियतृप्ति में लगना ही पड़ता है, क्योंकि कर्म किए बिना कोई रह नहीं सकता। बिना कृष्णभावनामृत के मनुष्य सदैव स्वार्थ में तत्पर रहता है। किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही सब कुछ करता है, फलतः वह इन्द्रियतृप्ति से पूरी तरह विरक्त रहता है। जिसे ऐसी अनुभूति प्राप्त नहीं है उसे चाहिए कि भौतिक इच्छाओं से बचे रहने का वह यंत्रवत प्रयास करे, तभी वह योग की सीढ़ी से ऊपर पहुँच सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदा– जब; हि – निश्चय ही; न – नहीं; इन्द्रिय-अर्थेषु – इन्द्रियतृप्ति में; न – कभी नहीं; कर्मसु – सकाम कर्म में; अनुषज्जते – निरत रहता है; सर्व-सङ्कल्प – समस्त भौतिक इच्छाओं का; संन्यासी– त्याग करने वाला; योग-आरूढः – योग में स्थित; तदा – उस समय; उच्यते – कहलाता है।

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