श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 275

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-17

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥[1]

भावार्थ

जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।

तात्पर्य

खाने, सोने, रक्षा करने तथा मैथुन करने में– जो शरीर की आवश्यकताएँ हैं– अति करने से योगाभ्यास की प्रगति रुक जाती है। जहाँ तक खाने का प्रश्न है, इसे तो प्रसादम या पवित्रीकृत भोजन के रूप में नियमित बनाया जा सकता है। भगवद्गीता [2] के अनुसार भगवान कृष्ण को शाक, फूल, फल, अन्न , दुग्ध आदि भेंट किये जाते हैं| इस प्रकार एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को ऐसा भोजन न करने का स्वतः प्रशिक्षण प्राप्त रहता है, जो मनुष्य के खाने योग्य नहीं होता या सतोगुणी नहीं होता। जहाँ तक सोने का प्रश्न हैं, कृष्णभावनाभावित व्यक्तो कृष्णभावनामृत में कर्म करने में निरन्तर सतर्क रहता है, अतः निद्रा में वह व्यर्थ समय नहीं गँवाता। अव्यर्थ-कालत्वम् – कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपना एक मिनट का समय भी भगवान की सेवा के बिना नहीं बिताना चाहता। अतः वह कम से कम सोता है। इसके आदर्श श्रील रूप गोस्वामी हैं, जो कृष्ण की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे और दिनभर में दो घंटे से अधिक नहीं सोते थे, और कभी-कभी तो उतना भी नहीं सोते थे। ठाकुर हरिदास तो अपनी माला में तीन लाख नामों का जप किये बिना न तो प्रसाद ग्रहण करते थे और न सोते हि थे। जहाँ तक कार्य का प्रश्न है, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो। इस प्रकार उसका कार्य सदैव नियमित रहता है और इन्द्रियतृप्ति से अदूषित। चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए इन्द्रियतृप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता, अतः उसे तनिक भी भौतिक अवकाश नहीं मिलता। चूँकि वह अपने कार्य, वचन, निद्रा, जागृति तथा अन्य शारीरिक कार्यों में नियमित रहता है, अतः उसे कोई भौतिक दुःख नहीं सताता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. युक्त – नियमित; आहार – भोजन; विहारस्य – आमोद-प्रमोद का; युक्त – नियमित; चेष्टस्य – जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने वाले का; कर्मसु – कर्म करने में; युक्त – नियमित; स्वप्न-अवबोधस्य – नींद तथा जागरण का; योगः – योगाभ्यास; भवति – होता है; दुःख-हा – कष्टों को नष्ट करने वाला।
  2. भगवद्गीता 9.26

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