श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 456

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-25


महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।[1]

भावार्थ

मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ।

तात्पर्य

ब्रह्माण्ड के प्रथम ब्रह्मा ने विभिन्न योनियों के विस्तार के लिए कई पुत्र उत्पन्न किये। इनमें से भृगु सबसे शक्तिशाली मुनि थे। समस्त दिव्य ध्वनियों में ओंकार कृष्ण का रूप है। समस्त यज्ञों में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे-का जप कृष्ण का सर्वाधिक शुद्ध रूप है। कभी-कभी पशु यज्ञ की भी संस्तुति की जाती है, किन्तु हरे कृष्ण यज्ञ में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता। यह सबसे सरल तथा शुद्धतम यज्ञ है। समस्त जगत में जो कुछ शुभ है, वह कृष्ण का रूप है। अतः संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिमालय भी उन्हीं का स्वरूप है। पिछले श्लोक में मेरु का उल्लेख हुआ है, परन्तु मेरु तो कभी-कभी सचल होता है, लेकिन हिमालय कभी चल नहीं है। अतः हिमालय मेरु से बढ़कर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महा-ऋषीणाम्-महर्षियों में; भृगुः-भृगु; अहम्-मैं हूँ; गिराम्-वाणी में; अस्मि-हूँ; एकम्-अक्षरम्-प्रणव; यज्ञानाम्-समस्त यज्ञों में; जप-यज्ञः-कीर्तन, जप; अस्मि-हूँ; स्थावराणाम्-जड़ पदार्थों में; हिमालयः-हिमालय पर्वत।

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