श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 477

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-4


मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥[1]

भावार्थ

हे प्रभु ! हे योगेश्वर ! यदि आप सोचते हैं कि मैं आपके विश्वरूप को देखने में समर्थ हो सकता हूँ, तो कृपा करके मुझे अपना असीम विश्वरूप दिखलाइये।

तात्पर्य

ऐसा कहा जाता है कि भौतिक इन्द्रियों द्वारा न तो परमेश्वर कृष्ण को कोई देख सकता है, न सुन सकता है और न अनुभव कर सकता है। किन्तु यदि कोई प्रारम्भ से भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा रहे, तो वह भगवान का साक्षात्कार करने में समर्थ हो सकता है। प्रत्येक जीव आध्यात्मिक स्फुलिंग मात्र है, अतः परमेश्वर को जान पाना या देख पाना सम्भव नहीं है। भक्तरूप में अर्जुन को अपनी चिन्तनशक्ति पर भरोसा नहीं है, वह जीवात्मा होने के कारण अपनी सीमाओं को और कृष्ण की अकल्पनीय स्थिति को स्वीकार करता है। अर्जुन समझ चुका था कि क्षुद्र जीव के लिए असीम अनन्त को समझ पाना सम्भव नहीं है। यदि अनन्त स्वयं प्रकट हो जाए, तो अनन्त की कृपा से ही उसकी प्रकृति को समझा जा सकता है। यहाँ पर योगेश्वर शब्द अत्यन्त सार्थक है, क्योंकि भगवान के पास अचिन्त्य शक्ति है। यदि वे चाहें तो असीम होकर भी अपने आपको प्रकट कर सकते हैं। अतः अर्जुन कृष्ण की अकल्पनीय कृपा की याचना करता है। वह कृष्ण को आदेश नहीं देता। जब तक कोई उनकी शरण में नहीं जाता और भक्ति नहीं करता, कृष्ण अपने को प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं हैं। अतः जिन्हें अपनी चिन्तन शक्ति[2] का भरोसा है, वे कृष्णदर्शन नहीं कर पाते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मन्यसे- तुम सोचते हो; यदि- यदि; तत्-वह; शक्यम्- समर्थ; मया-मेरे द्वारा; द्रष्टुम्-देखे जाने के लिए; इति-प्रकार; प्रभो-स्वामी; योग-ईश्वर-हे योगेश्वर; ततः-तब; मे-मुझे; त्वम्-आप; दर्शय-दिखलाइये; आत्मानम्-अपने स्वरूप को; अव्ययम्-शाश्वत।
  2. मनोधर्म

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