श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 519

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-53

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥[1]

भावार्थ

तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता।

तात्पर्य
कृष्ण पहले अपनी माता देवकी तथा पिता वसुदेव के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए थे और तब उन्होंने अपना द्विभुज रूप धराण किया था। जो लोग नास्तिक हैं या भक्तिविहीन हैं, उनके लिए इस रहस्य को समझ पाना अत्यन्त कठिन है। जिन विद्वानों ने केवल व्याकरण विधि से या कोरी शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया है, वे कृष्ण को नहीं समझ सकते। न ही वे लोग कृष्ण को समझ सकेंगे, जो औपचारिक पूजा करने के लिए मन्दिर जाते हैं। वे भले ही वहाँ जाते रहें, वे कृष्ण के असली रूप को नहीं समझ सकेंगे। कृष्ण को तो केवल भक्तिमार्ग से समझा जा सकता है, जैसा कि कृष्ण ने स्वयं अगले श्लोक में बताया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न - कभी नहीं; अहम् - मैं; वेदैः - वेदाध्ययन से; न - कभी नहीं; तपसा - कठिन तपस्या द्वारा; न - कभी नहीं; दानेन - दान से; च - भी; इज्यया - पूजा से; शक्यः - संभव है; एवम् -विधः - इस प्रकार से; द्रष्टुम् - देख पाना; दृष्टवान् - देख रहे; असि - तुम हो; माम् - मुझको; यथा - जिस प्रकार।

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