श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 574

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-13


ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥13॥[1]

भावार्थ

अब मैं तुम्हें ज्ञेय के विषय में बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादन कर सकोगे। यह ब्रह्म या आत्मा, जो अनादि है और मेरे अधीन है, इस भौतिक जगत के कार्य-कारण से परे स्थित है।

तात्पर्य

भगवान ने क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ की व्याख्या की। उन्होंने क्षेत्रज्ञ को जानने की विधि की भी व्याख्या की। अब वे ज्ञेय के विषय में बता रहे हैं- पहले आत्मा के विषय में, फिर परमात्मा के विषय में। ज्ञाता अर्थात आत्मा तथा परमात्मा दोनों ही के ज्ञान से मनुष्य जीवन-अमृत का आस्वादन कर सकता है। जैसा कि द्वितीय अध्याय में कहा गया है, जीव नित्य है। इसकी भी यहाँ पुष्टि हुई है। जीव के उत्पन्न होने की कोई निश्चित तिथि नहीं है। न ही कोई परमेश्वर से जीवात्मा के प्राकट्य का इतिहास बता सकता है। अतएव वह अनादि है। इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है- न जायते म्रियते वा विपश्चित्[2]। शरीर का ज्ञाता न तो कभी उत्पन्न होता है, और न मरता है। वह ज्ञान से पूर्ण होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्ञेयम्=जानने योग्य; यत्=जो; तत्=वह; प्रवक्ष्यामि=अब मैं बतलाऊँगा; यत्=जिसे; ज्ञात्वा=जानकर; अमृतम्=अमृत का; अश्नुते=आस्वादन करता है; अनादि=आदि रहितः; मत्परम्=मेरे अधीन; ब्रह्म=आत्मा; न=न तो; सत्=कारण; तत्=वह; न=न तो; असत्=कार्य, प्रभाव; उच्यते=कहा जाता है।
  2. कठोपनिषद् 1.2.18

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