श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 693

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-23


य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥23॥[1]

भावार्थ

जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परमगति की प्राप्ति हो पाती है।

तात्पर्य

जैसा कि पहले कहा जा चुका है मानव समाज के विभिन्न आश्रमों तथा वर्णों के लिए शास्त्रविधि दी गयी है। प्रत्येक व्यक्ति को इन विधि-विधानों का पालन करना होता है। यदि कोई इनका पालन न करके काम, क्रोध और लोभवश स्वेच्छा से कार्य करता है, तो उसे जीवन में कभी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, भले ही मनुष्य ये सारी बातें सिद्धान्त के रूप में जानता रहे, लेकिन यदि वह इन्हें अपने जीवन में नहीं उतार पाता, तो वह अधम जाना जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यः= जो; शास्त्र-विधिम्= शास्त्रों की विधियों को; उत्सृज्य= त्याग कर; वर्तते= करता रहता है; काम-कारतः= काम के वशीभूत होकर मनमाने ढंग से; न= कभी नहीं; सः= वह; सिद्धिम्= सिद्धि को; अवाप्नोति= प्राप्त करता है; न= कभी नहीं; सुखम्= सुख को; न= कभी नहीं; पराम्= परम; गतिम= सिद्ध अवस्था को।

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