श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 362

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-12


सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।[1]

भावार्थ

समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है। इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है।

तात्पर्य

इस श्लोक में बताई गई विधि से योगाभ्यास के लिए सबसे पहले इन्द्रियभोग के सारे द्वार बन्द करने होते हैं। यह प्रत्याहार अथवा इन्द्रियविषयों से इन्द्रियों को हटाना कहलाता है। इसमें ज्ञानेन्द्रियों –नेत्र, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श को पूर्णतया वश में करके उन्हें इन्द्रियतृप्ति में लिप्त होने नहीं दिया जाता। इस प्रकार मन हृदय में स्थित परमात्मा पर केन्द्रित होता है और प्राणवायु को सर के ऊपर तक चढ़ाया जाता है। इसका विस्तृत वर्णन छठे अध्याय में हो चुका है। किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है अब यह विधि व्यावहारिक नहीं है। सबसे उत्तम विधि तो कृष्णभावनामृत है। यदि कोई भक्ति में अपने मन को कृष्ण में स्थिर करने में समर्थ होता है, तो उसके लिए अविचलित दिव्य समाधि में बने रहना सुगम हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्व-द्वाराणि – शरीर के समस्त द्वारों को; संयम्य – वश में करके; मनः – मन को; हृदि – हृदय में; निरुध्य – बन्द कर; च – भी; आधाय – स्थिर करके; आत्मनः – अपने; प्राणम् – प्राणावायु को; आस्थितः – स्थित; योग-धारणाम् – योग की स्थिति।

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