श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 817

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-75


व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम् ॥75॥[1]

भावार्थ

व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं।

तात्पर्य

व्यास संजय के गुरु थे और संजय स्वीकार करते हैं कि व्यास की कृपा से ही वे भगवान को समझ सके। इसका अर्थ यह हुआ कि गुरु के माध्यम से ही कृष्ण को समझना चाहिए, प्रत्यक्ष रूप से नहीं। गुरु स्वच्छ माध्यम है, यद्यपि अनुभव फिर भी प्रत्यक्ष ही होता है। गुरु-परम्परा का यही रहस्य है। जब गुरु प्रमाणिक हो तो भगवद्गीता का प्रत्यक्ष श्रवण किया जा सकता है, जैसा अर्जुन ने किया। संसार भर में उनके योगी हैं लेकिन कृष्ण योगेश्वर हैं। उन्होंने भगवद्गीता में स्पष्ट उपदेश दिया है, ‘‘मेरी शरण में आओ। जो ऐसा करता है वह सर्वोच्च योगी है।’’ छठे के अध्याय के अन्तिम श्लोक में इसकी पुष्टि हुई है- योगिनाम् अपि सर्वेषाम्।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. व्यास-प्रसादात्= व्यासदेव की कृपा से; श्रुतवान्= सुना है; एतत्= इस; गुह्यम्= गोपनीय; अहम्= मैंने; परम्= परम; योगम्= योग को; योग-ईश्वरात्= योग के स्वामी; कृष्णात्= कृष्ण से; साक्षात्= साक्षात्; कथयतः= कहते हुए; स्वयम्= स्वयं।

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