श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 695

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-24


तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥24॥[1]

भावार्थ

अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है। उसे ऐसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके।

तात्पर्य

जैसा कि पन्द्रहवें अध्याय में कहा जा चुका है वेदों के सारे विधि-विधान कृष्ण को जानने के लिए हैं। यदि कोई भगवद्गीता से कृष्ण को जान लेता है और भक्ति में प्रवृत्त होकर कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है, तो वह वैदिक साहित्य द्वारा प्रदत्त ज्ञान की चरम सिद्धि तक पहुँच जाता है। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने इस विधि को अत्यन्त सरल बनाया-उन्होंने लोगों से केवल हरे कृष्ण महामन्त्र जपने तथा भगवान की भक्ति में प्रवृत्त होन और अर्चाविग्रह को अर्पित भोग का उच्छिष्ट खाने के लिए कहा। जो व्यक्ति इन भक्तिकार्यों में संलग्न रहता है, उसे वैदिक साहित्य से अवगत और सारतत्त्व को प्राप्त हुआ माना जाता है। निस्सन्देह, उन सामान्य व्यक्तियों के लिए, जो कृष्णभावनाभावित नहीं हैं, या भक्ति में प्रवृत्त नहीं हैं, करणीय तथा अकरणीय कर्म का निर्णय वेदों के आदेशों के अनुसार किया जाना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तस्मात्= इसलिए; शास्त्रम्= शास्त्र; प्रमाणाम्= प्रमाण; ते= तुम्हारा; कार्य= कर्तव्य; अकार्य= निषिद्ध कर्म; व्यवस्थितौ= निश्चित करने में; ज्ञात्वा= जानकर; शास्त्र= शास्त्र का; विधान= विधान; उक्तम्= कहा गया; कर्म= कर्म; कर्तुम्= करना; इह= इस संसार में; अर्हसि= तुम्हें चाहिए।

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