श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 132

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग
अध्याय 3 : श्लोक-8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥[1]

भावार्थ

अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता।

तात्पर्य

ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अपने आप को उच्चकुलीन बताते हैं तथा ऐसे बड़े-बड़े व्यवसायी व्यक्ति हैं, जो झूठा दिखावा करते हैं कि आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है। श्रीकृष्ण यः नहीं चाहते थे कि अर्जुन मिथ्याचारी बने, अपितु वे चाहते थे कि अर्जुन क्षत्रियों के लिए निर्दिष्ट धर्म का पालन करे। अर्जुन गृहस्थ था और एक सेनानायक था, अतः उसके लिए श्रेयस्कर था कि वह उसी रूप में गृहस्थ क्षत्रिय के लिए निर्दिष्ट धार्मिक कर्तव्यों का पालन करे। ऐसे कार्यों से संसारी मनुष्य का हृदय क्रमशः विमल हो जाता है और वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। देह-निर्वाह के लिए किये गए तथा कथित त्याग (संन्यास) का अनुमोदन न तो भगवान करते हैं और न कोई धर्मशास्त्र ही। आखिर देह-निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकतावादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात् इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य की चाहिए कि तथा कथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नियतम् – नियत; कुरु – करो; कर्म – कर्तव्य; तवम् – तुम; कर्म – कर्म करना; ज्यायः – श्रेष्ठ; हि – निश्चय ही; अकर्मणः – काम न करने की अपेक्षा; शरीर – शरीर का; यात्रा – पालन, निर्वाह; अपि – भी; च – भी; ते – तुम्हारा; न – कभी नहीं; प्रसिद्धयेत् – सिद्ध होता; अकर्मणः – बिना काम के।

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