श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 469

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-38


दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।[1]

भावार्थ

अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं उनकी मैं नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ।

तात्पर्य

वैसे तो दमन के अनेक साधन हैं, किन्तु इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है दुष्टों का नाश। जब दुष्टों को दण्डित किया जाता है तो दण्ड देने वाला कृष्णस्वरूप होता है। किसी भी क्षेत्र में विजय की आकांक्षा करने वाले में नीति की ही विजय होती है। सुनने, सोचने तथा ध्यान करने की गोपनीय क्रियाओं में मौन ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मौन रहने से जल्दी उन्नति होती है। ज्ञानी व्यक्ति वह है, जो पदार्थ तथा आत्मा में, भगवान की परा तथा अपरा शक्तियों में भेद कर सके। ऐसा ज्ञान साक्षात कृष्ण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दण्डः-दण्ड; दमयताम्-दमन के समस्त साधनों में से; अस्मि-हूँ; नीतिः-सदाचार; अस्मि-हूँ; जिगीषताम्-विजय की आकांशा करने वालों में; मौनम्-चुप्पी, मौन; च-तथा; एव-भी ; अस्मि-हूँ; गुह्यानाम् - रहस्यों में; ज्ञानम्-ज्ञान; ज्ञान-वताम्-ज्ञानियों में; अहम्-मैं हूँ।

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