श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 639

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-3-4


न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसग्ङशस्त्रेण दृढेन छित्वा ॥3॥
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी ॥4॥[1]

भावार्थ

इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता। कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है, अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए। तत्पश्चात उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादि काल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है।

तात्पर्य

अब यह स्पष्ट कह दिया गया है कि इस अश्वत्थ वृक्ष के वास्तविक स्वरूप को इस भौतिक जगत में नहीं समझा जा सकता। चूँकि इसकी जड़े ऊपर की ओर हैं, अतः वास्तविक वृक्ष का विस्तार विरुद्ध दिशा में होता है। जब वृक्ष के भौतिक विस्तार में कोई फँस जाता है, तो उसे न तो यह पता चल पाता है कि यह कितनी दूरी तक फैला है और न वह इस वृक्ष के शुभारम्भ की ही देख पाता है। फिर भी मनुष्य को कारण की खोज करनी ही होती है। ‘‘मैं अमुक पिता का पुत्र हूँ, जो अमुक का पुत्र है, आदि’’- इस प्रकार अनुसन्धान करने से मनुष्य को ब्रह्मा प्राप्त होते हैं, जिन्हें गर्भोदकाशीय विष्णु ने उत्पन्न किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न= नहीं; रूपम्= रूप; अस्य= इस वृक्ष का; इद= इस संसार में; तथा= भी; उपलभ्यते= अनुभव किया जा सकता है; न= कभी नहीं; अन्तः= अन्त; न= कभी नहीं; च= भी; आदिः= प्रारम्भ; न= कभी नहीं; च= भी; सम्प्रतिष्ठा= नींव; अश्वत्थम्= अश्वत्थ वृक्ष को; एनम्= इस; सु-विरूढ= अत्यन्त दृढ़ता से; मूलम्= जड़ वाला; असंग-शस्त्रेण= विरक्ति के हथियार से; दृढेन= दृढ; छित्वा= काट कर; ततः= तत्पश्चात्; पदम्= स्थिति को; तत्= उस; परिमार्गितव्यम्= खोजना चाहिए; यस्मिन्= जहाँ; गताः= जाकर ; न= कभी नहीं; निवर्तन्ति= वापस आते हैं; भूयः= पुनः; तम्= उसको; एव= ही; च= भीः आद्यम्= आदि; पुरुषम्= भगवान् की; प्रपद्ये= शरण में जाता हूँ; यतः= जिससे; प्रवृत्तिः= प्रारम्भ; प्रसृता= विस्तीर्ण; पुराणी= अत्यन्त पुरानी।

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