श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 684

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-13-15


इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्यस्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥13॥
असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥14॥
आडऽभिजनवानस्मि कोडन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता: ॥15॥[1]

भावार्थ

आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा। इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा। वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिए जाएंगे। मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ। मैं भोक्ता हूँ। मैं सिद्ध, शक्तिमान तथा सुखी हूँ। मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं। कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है। मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इदम्= यह; अद्य= आज; मया= मेरे द्वारा; लब्धम्= प्राप्त; इमम्= इसे; प्राप्स्ये= प्राप्त करूँगा; मनःरथम्= इच्छित; इदम्= यह; अस्ति= है; इदम्= यह; अपि= भी; मे= मेरा; भविष्यति= भविष्य में बढ़ जायगा; पुनः= फिर; धनम्= धन; असौ= वह; मया= मेरे; हतः= मारा गया; शत्रुः= शत्रु; हनिष्ये= मारूँगा; च= भी; अपरान्= अन्यों को; अपि= निश्चय ही; ईश्वरः= प्रभु, स्वामी; अहम्= मैं हूँ; अहम्= मैं हूँ; भोगी= भोक्ता; सिद्धः= सिद्ध; अहम्= मैं हूँ; बलवान्= शक्तिशाली; सुखी= प्रसन्न; आढ्यः= धनी; अभिजन-वान्= कुलीन सम्बन्धियों से घिरा; अस्मि= मैं हूँ; कः= कौन; अन्यः= दूसरा; अस्ति = है; सदृशः= समान; मया= मेरे द्वारा; यक्ष्ये= मैं यज्ञ करूँगा; दास्यामि= दान दूँगा; मोदिष्ये= आमोद= प्रमोद मनाऊँगा; इति= इस प्रकार; अज्ञान= अज्ञानतावश; विमोहिताः= मोहग्रस्त।

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