श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 450


श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-19


हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।[1]

भावार्थ

श्री भगवान ने कहा- हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन ! मेरा ऐश्वर्य असीम है।

तात्पर्य

कृष्ण की महानता तथा उनका ऐश्वर्य को समझ पाना सम्भव नहीं है। जीव की इन्द्रियाँ सीमित हैं, अतः उनसे कृष्ण के कार्य-कलापों की समग्रता को समझ पाना सम्भव नहीं है। तो भी भक्तजन कृष्ण को जानने का प्रयास करते हैं, किन्तु यह मानकर नहीं कि वे किसी विशेष समय में या जीवन-अवस्था में उन्हें पूरी तरह समझ सकेंगे। बल्कि कृष्ण के वृत्तान्त इतने आस्वाद्य हैं कि भक्तों को अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं। इस प्रकार भक्तगण उनका आनन्द उठाते हैं। भगवान के ऐश्वर्यों तथा उनकी विविध शक्तियों की चर्चा चलाने में शुद्ध भक्तों को दिव्य आनन्द मिलता है, अतः वे उनको सुनते रहना और उनकी चर्चा चलाते रहना चाहते हैं। कृष्ण जानते हैं कि जीव उनके ऐश्वर्य के विस्तार को नहीं समझ सकते, फलतः वे अपनी विभिन्न शक्तियों के प्रमुख स्वरूपों का ही वर्णन करने के लिए राजी होते हैं। प्राधान्यतः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, जबकि उनके स्वरूप अनन्त हैं। इन सबको समझ पाना सम्भव नहीं है। इस श्लोक में प्रयुक्त विभूति शब्द उन ऐश्वर्यों का सूचक है, जिनके द्वारा भगवान सारे विश्व का नियन्त्रण करते हैं। अमरकोश में विभूति का अर्थ विलक्षण ऐश्वर्य है।

निर्विशेषवादी या सर्वेश्वरवादी न तो भगवान के विलक्षण ऐश्वर्यों को समझ पाता है, न उनकी दैवी शक्तियों के स्वरूपों को। भौतिक जगत में तथा वैकुण्ठ लोक में उनकी शक्तियाँ अनेक रूपों में फैली हुई हैं। अब कृष्ण उन रूपों को बताने जा रहे हैं, जो सामान्य व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है। इस प्रकार उनकी रंगबिरंगी शक्ति का आंशिक वर्णन किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच-भगवान ने कहा; हन्त-हाँ; ते-तुमसे; कथयिष्यामि-कहूँगा; दिव्याः-दैवी; हि-निश्चय ही; आत्म-विभूतयः-अपने ऐश्वर्यों को; प्राधान्यतः-प्रमुख रूप से; कुरुश्रेष्ठ-हे कुरुश्रेष्ठ; न आस्ति-नहीं है; अन्तः-सीमा; विस्तरस्य-विस्तार की; मे-मेरे।

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