श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 584

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-20


प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥20॥[1]

भावार्थ

प्रकृति तथा जीवों को अनादि समझना चाहिए। उनके विचार तथा गुण प्रकृतिजन्य हैं।

तात्पर्य

इस अध्याय के ज्ञान से मनुष्य शरीर (क्षेत्र) तथा शरीर के ज्ञाता[2] को जान सकता है। शरीर क्रियाक्षेत्र है और प्रकृति से निर्मित है। शरीर के भीतर बद्ध तथा उसके कार्यों का भोग करने वाला आत्मा ही पुरुष या जीव है। वह ज्ञाता है और इसके अतिरिक्त भी दूसरा ज्ञाता होता है, जो परमात्मा है। निस्सन्देह यह समझना चाहिए कि परमात्मा तथा आत्मा एक ही भगवान की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। जीवात्मा उनकी शक्ति है और परमात्मा उनका साक्षात् अंश (स्वांश) है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रकृतिम्= भौतिक प्रकृति को; पुरुषम्= जीव को; च= भी; एव= निश्चय ही; विद्धि= जानो; अनादी= आदिरहित; उभौ= दोनों; अपि= भी; विकारान्= विकारों को; च= भी; गुणान्= प्रकृति के तीन गुण; च= भी; एव= निश्चय ही; विद्धि= जानो; प्रकृति= भौतिक प्रकृति से; सम्भवान्= उत्पन्न।
  2. जीवात्मा तथा परमात्मा दोनों

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