श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 244

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥[1]

भावार्थ

परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है।

तात्पर्य

विभु का अर्थ है, परमेश्वर जो असीम ज्ञान, धन, बल, यश, सौन्दर्य तथा त्याग से युक्त है। वह सदैव आत्मतृप्त और पाप-पुण्य से अविचलित रहता है। वह किसी भी जीव के लिए विशिष्ट परिस्थिति नहीं उत्पन्न करता, अपितु जीव अज्ञान से मोहित होकर जीवन के लिए विशिष्ट परिस्थिति की कामना करता है, जिसके कारण कर्म तथा फल की श्रृंखला आरम्भ होती है। जीव परा प्रकृति के कारण ज्ञान से पूर्ण है। तो भी वह अपनी सीमित शक्ति के कारण अज्ञान के वशीभूत हो जाता है। भगवान सर्वशक्तिमान है, किन्तु जीव नहीं है। भगवान विभु अर्थात सर्वज्ञ है, किन्तु जीव अणु है। जीवात्मा में इच्छा करने की शक्ति है, किन्तु ऐसी इच्छा की पूर्ति सर्वशक्तिमान भगवान द्वारा ही की जाती है। अतः जब जीव अपनी इच्छाओं से मोहग्रस्त हो जाता है तो भगवान उसे अपनी इच्छा पूर्ति करने देते हैं, किन्तु किसी परिस्थिति विशेष में इच्छित कर्मों तथा फलों के लिए उत्तरदायी नहीं होते। अतएव मोहग्रस्त होने से देहधारी जीव अपने को परिस्थितिजन्य शरीर मान लेता है और जीवन के क्षणिक दुख तथा सुख को भोगता है। भगवान परमात्मा रूप में जीव के चिरसंगी रहते हैं, फलतः वे प्रत्येक जीव की इच्छाओं को उसी तरह समझते हैं जिस तरह फूल के निकट रहने वाला फूल की सुगन्ध को। इच्छा जीव को बद्ध करने के लिए सूक्ष्म बन्धन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न – कभी नहीं; आदत्ते – स्वीकार करता है; कस्यचित् – किसी की; पापम् – पाप; न – न तो; च – भी; एव – निश्चय ही; सु-कृतम् – पुण्य को; विभुः – परमेश्वर; अज्ञानेन – अज्ञान से; आवृतम् – आच्छादित; ज्ञानम् – ज्ञान; तेन – उससे; मुह्यन्ति – मोह-ग्रस्त होते हैं; जन्तवः – जीवगण।

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