श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 245

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-15

भगवान मनुष्य की योग्यता के अनुसार उसकी इच्छा का पुरा करते हैं– आपन सोची होत नहिं प्रभु सोची तत्काल। अतः व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पूरा करने में सर्वशक्तिमान नहीं होता। किन्तु भगवान इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं। वे निष्पक्ष होने के कारण स्वतन्त्र अणुजीवों की इच्छाओं में व्यवधान नहीं डालते। किन्तु जब कोई कृष्ण की इच्छा करता है तो भगवान उसकी विशेष चिन्ता करते हैं और उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते हैं कि भगवान को प्राप्त करने की इच्छा पूरी हो और वह सदैव सुखी रहे। अतएव वैदिक मन्त्र पुकार कर कहते हैं– एष उ ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते। एष उ एवासाधु कर्म कारयति यमधो निनीषते- “भगवान् जीव को शुभ कर्मों में इसीलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह ऊपर उठे। भगवान उसे अशुभ कर्मों में इसीलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह नरक जाए |” [1]

अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वाश्वभ्रमेव च॥

“जीव अपने सुख-दुःख में पूर्णतया आश्रित है। परमेश्वर की इच्छा से वह स्वर्ग या नरक जाता है, जिस तरह वायु के द्वारा प्रेरित बादल”।

अतः देहधारी जीव कृष्ण भावना मृत की उपेक्षा करने की अपनी अनादि प्रवृत्ति के कारण अपने लिए मोह उत्पन्न करता है। फलस्वरूप स्वभावतः सच्चिदानन्द स्वरूप होते हुए भी वह अपने अस्तित्व की लघुता के कारन भगवान के प्रति सेवा करने की अपनी स्वाभाविक स्थिति भूल जाता है और इस तरह वह अविद्या द्वारा बन्दी बना लिया जाता है। अज्ञानवश जीव यह कहता है कि उसके भवबन्धन के लिए भगवान उत्तरदायी हैं। इसकी पुष्टि वेदान्त-सूत्र [2] भी करते हैं– वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति– “भगवान न तो किसी के प्रति घृणा करते हैं, न किसी को चाहते हैं, यद्यपि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कौषीतकी उपनिषद 3.8
  2. 2.1.34

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